Friday, July 1, 2016

प्रेम सूख गया है


जब बैठे हो सामने 
टेबल पर
करने को 
कोई बात न सूझे
समझो प्रेम सूख गया

हो हज़ारो बातें दिल में
बाँटने को 
एक दूजे से
लेकिन मुख से 
एक शब्द न फूटे
समझो प्रेम सूख गया

रहे एक ही घर में
एक ही कमरा हो
साथ रहने का
लेकिन फिर भी 
मन अकड़ा रहे
दिल न पसीजे
समझो प्रेम रूठ गया

शीशे के सामने 
खड़े होकर भी
खुद को 
निहारने का मन न करे
कौन देखने वाला है
ये सोच कर
खुद को तैयार न करे
समझो लग गई है 
प्रेम में फफूंद
प्रेम सूख गया

दरवाजे पर कोई आहट हो
दिल न धड़के
किसी के आने का 
इंतज़ार न हो
समझो प्रेम के बीज पे
तेज़ाब पड़ गया
प्रेम सूख गया

दिखने लगे एक दूजे के ऐब
होने लगे शिकायते
समझो प्रेम का पेड़
मुरझा रहा है

Thursday, June 30, 2016

ओह पापा

न जाने क्यों 
वह पापा के नाम से 
नजरे चुराता था

शायद तमाम दर्द थे
जो पापा ने उसे 
उम् भर के लिए
तोहफे में दे गए थे
दे गए थे 
सारी उम्र का कर्ज
विधवा माँ की जिम्मेदारी
दो छोटे भाइयो की पढाई

पापा के पास 
बचपन से सब कुछ था
काजू चिलगोजे से भरी 
दोनों जेबे
जो भी मांगते 
सब एक पल में मिल जाता
और जो न मिलता उसके लिए
अपनी स्वर्गीय माँ का नाम लेकर ऐसा रोते 
दादा जी घबराकर वो चीज उन्हें
दिलवा देते
ऐसी बेजा मांगो को पूरी करवाते हुए 
वो न जाने कब
बहुत जिद्दी, गुस्सैल और हठीले हो गए थे

दादा जी ने सोचा शादी हो जायेगी तो शायद ठीक हो जाये
लेकिन अति सूंदर पत्नी के होते हुए भी उनके स्वाभाव पे
कोई फर्क न पड़ा
क्योंकि पत्नी सिर्फ देखने की सूंदर थी
उसे कुछ भी नहीं आता था
यहाँ तक की बेचारी को
न घर के काम सिखाये गए थे
न दुनियादारी
घमासान तो निश्चित ही था
सो सारी उम्र चलता रहा

कैसे तैसे जिंदगी की गाड़ी चल ही रही थी
उसी बीच न जाने कब हम
तीन भाई आ गिरे
माँ पापा की झोली में

आदते ऐसी होती है जो छुड़ाए नहीं छूट ती
पापा को भी पता नहीं ताश,सट्टा  खेलने का शौक लग गया
चैन स्मोकर तो वो थे ही
पेरफेक्टिनिस्ट इतने की कमीज पे एक सिलवट बर्दाश्त नहीं थी
उन्हें जिद थी की एक फ़िल्म प्रोड्यूस की जाये
सो जुट गए फ़िल्म की तैयारी में
फ़िल्म तो क्या बनती लोगों ने नवाब साहब कह कर सारा पैसा लूट लिया

दादा जी के मेहनत की कमाई
मिनट में शराब, काजू की प्लेट के भेट चढ़ गई
लेकिन पापा इतना गवाकर भी अभी तक होश में नहीं आये थे

उनका बर्बाद होना अभी जारी था
जब तक दादा जी थे हम बच्चे
अच्छे कान्वेंट स्कूल में जाते रहे
लेकिन दादा जी का देहावसान
और हमारे स्कूल की छुट्टी

मंझला भाई रण जी ट्राफी खेलना चाहता था 
करनी पड़ी एक दुकान पे छोटी सी नौकरी

पापा ने भी पता नहीं अपनी नौकरी में क्या किया
जो ससपेंड कर दिए गए

फिर एक दिन किसी रिश्तेदार के यहाँ थे
वही से खबर आई पापा कोमा में आ गए है
आनन् फानन उन्हें एडमिट किया
डॉ भी उन्हें न बचा सके
जिंदगी भर वो हमसे रूठे रहे
अंत में जिंदगी उनसे ही रूठ गई
उम्र भर तो वो हमसे हर बात छिपाते रहे
अपनी मौत से पहले भी कुछ बताना उचित न समझा

रह गए कुछ अन सुलझे सवाल
जिनका अब कोई मायने नहीं
सोचता हूँ सबके पापा उनके लिए आइडियल होते है
मैं अपने पापा को क्या समझु
आइडियल या कुछ और

आड़ी तिरछी लकीरे

वह छोटी सी थी
तभी खेल खेल में
कोयले से
खींचा करती थी
जमीन पर 
आड़ी तिरछी लकीरे
शायद कभी नसीब 
चमक जाये
लेकिन काली लकीरे भी
क्या कभी सफेद हुई है
या आई है उनसे चमक
कभी जिंदगी में
खेल खेल में जिंदगी ही
खेल हो गई
हमेशा की तरह
एक मासूम लड़की
फिर छली गई
काला टीका
काली लकीरे
काला नसीब
यही है भोलेपन की सजा
जो भोगनी है उसे
हर जनम में
बार बार
हर बार