Friday, August 12, 2016

बेबसी

तुम मैं और मेरी 
आराम कुर्सी
आँखे बंद करते ही
उतर जाती हूँ 
सोचों की वादियों में
तुम्हारे साथ
हर लम्हा
हर पल 
जो तुम्हारे साथ बीता
आँखों में तैर उठता है
जी उठती हूँ मैं
तुम मुझसे 
बहुत दूर चले गए
लेकिन मुझे 
ऐसा महसूस होता है
जैसे तुम मेरे 
बहुत नजदीक आ गए
हर समय 
तुम्हारा ही ख्याल
तुम्हारी बातें
सब कानों में 
गूंजती रहती है
जैसे वो लम्हे 
गुजर कर भी 
गुजरे ही नहीं
ठहर से गए हो
तुम्हारे साथ

मेरी सफलताओं पे 
एक तुम ही तो थे
जो खुश हुआ करते थे
मेरी छोटी छोटी बातों को भी
झट से 
मान लिया करते थे
जैसे मैं एक छोटी बच्ची हूँ
और तुम मेरे पिता
सच तुम तो 
मेरा साया थे
मेरे सुख दुःख के रखवाले
हर वक़्त मेरा भला 
सोचने वाले
सब कुछ हैं
मैं हूँ
आराम कुर्सी है
लेकिन प्रगट रूप से 
तुम नहीं हो
सुनो न
फिर से
मुझे अपनी छाया 
बना लो न
नहीं रह सकती 
तुम्हारे बगैर
तुम्हारे साये के बिना
जिंदगी पहाड़ सी लगती है
लगता है जैसे चारों ओर हो
घनघोर अँधेरा 
और मैं अकेली
बिलकुल अकेली, , बेबस 
बेसहारा
जिसको सहारा देने वाला 
कोई न हो
आ जाओ न 
एक बार
अब तुम्हे कभी नहीं सताऊँगी
जो कहोगे मानूँगी
मेरे पास तुम्हारे सिवा 
कोई नहीं

2 Comments:

At August 13, 2016 at 5:13 AM , Blogger डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-08-2016) को "कल स्वतंत्रता दिवस है" (चर्चा अंक-2434) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

 
At August 21, 2016 at 10:58 PM , Anonymous Anonymous said...

:( :)

 

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