Tuesday, October 13, 2015

मित्र से बातचीत



मित्र का प्रश्न
..................
सोचती हूँ
इस बरस तों मैं भी झाड लूँ 
ये परत दर परत चढ़ी धुल .....
उतार लूँ ....सालों साल लगे 
ये जले 
ये दीवार ....
ये पपड़ी उतरी दीवारें 
सोचती हूँ ..... रंग डालूं 
लेकिन .....जाने ऐसा क्या है 
इस धुल मे ...इन पपड़ी उखड़ी दीवारों मे 
ये जाले.....
जिसे भी छूती ...
तुम छू जाते हो मुझे 
एक सिहरन सी दोड़ जाती है 
एक एक कोना 
तुम्हारी याद से सजा है 
कैसे पोछूं ....कैसे झाडून 
कैसे रंगु ...
नहीं मिटा सकती ये नक्श 
ये मिटे तों मैं कहाँ बचूंगी ....
बैठ जाती हूँ ....टेक लगा के किसी दीवार की 
अहसासती हूँ ..तेरे काँधे पे टिका अपना सर 
मुंड लेती हूँ आँखे ...
नहीं झाड पाउंगी......

मेरा जवाब
.................
तुम परेशां मत हो
आऊंगा अबकी बार
तुम्हारे सारे दुःख मिटा दूंगा
मिलकर झाडेंगे दीवारो पे लगी पीली पुरानी पापड़ी
जाले भी उतारेंगे
करवाएंगे नया रंग रोगन
तुम अकेले कुछ मत करना
इस दीवाली करेंगे तुम्हारे भीतर छिपे दुखो को दूर
अंदर बाहर से तुम्हे हर्षाएंगे
मत याद करो उन मनहूस पलो को
जब अपने अपने अहंकार के कारन
हम दूर हो गए थे
बरसो बरस मैं भी तड़पा हूँ
तुम्हारे लिए
अबकी लौट आऊंगा
बनवास पूरा हो जायेगा मेरा
मन का रावण भी मर जायेगा
ये दशहरा
ये दीवाली
तुम्हारी खुशियो से जगमग हो
खिले दिल में फुलझडिया
पटाखे
मीठा सा अपना मिलन हो
मुझे माफ कर देना
मेरा इंतज़ार  करना
मैं आ
 रहा हूँ
अभी तो बहुत सी शौपिंग भी करनी है
तुम्हारे लिए
अपने बच्चों के लिए
अम्मा के लिए गरम शाल भी लेनी है
उनकी पपड़ा गई आँखों से माफी भी लेनी है
बाबू जी का मोतियाबिंद का ऑपरेशन भी कराना है
सच्ची तुम सब का गुनहगार हूँ मैं
लेकिन अब और नहीं
कहते है न
अगर सुबह का भुला हुआ शाम को घर अ जाये तो उसे
भूला हुआ नहीं कहते
चलो अब बहुत बातें कर ली
ये ख़त बंद करता हूँ
तुम किसी को मेरे आने की खबर मत देना
मैं सबके चेहरे पर अनजानी ख़ुशी देखना चाहता हूँ
तुम भी अपना ख्याल रखना

चलो बाय

एक ये ख़त पढ़कर तुम्हारे तो पंख लग गए होंगे
जानता हूँ बहुत प्यार करती हो मुझे
मेरी सारी गलतिया माफ कर दोगी तुम
मैंने कहा न
तुमसे अच्छा कौन मुझे जानता है
तुम ही तो पढ़ पाती हो मुझे
बिन कहे ही सब समझ लेती हो
बहुत भटका हूँ
बीते सालों में
पल पल तुम्हारी कमी को महसूसा है मैंने
आज से मेरी नहीं
तुम्हारी मर्जी चला करेगी
मैं तुम्हारा गुलाम हुआ
बोलो क्या हुकुम है मेरे आक़ा
..................
मित्र का जवाब

हां ..चाहती हू
हंसना .खिलखिलाना
पखं लगाना
पर
 खडी  होती हू आइने के सामने
वो ही पतझड दिखता है मुझ मे
जो तुम भर गए मुझ मे
नही   बदला मौसम..क्या करू

मेरा जवाब
तुम्हे इतना समझाया
सब बेकार
तुम भी न
भूल जाओ बीती बातें
चलो मेरे साथ आगे बढ़ो
खुद को सवारो
अपनी मांग में मेरे नाम का सिन्दूर भरो
एक बड़ी सी बिंदिया लगाओ
अछि सी साड़ी पहनो
मुझे तुम बुझी बुझी सी अछिव  नहि  लगती पगली
अब मैं खुद तुम्हे अपने हाथो से सवारूंगा
तुम मुझे आने तो दो पगली

रहने दो मैं नहीं आता
रह लूंगा सबके बिना
तुम्हारे बिना
क्या सोचती हो
मर जाऊंगा
मरा तो पहले से ही हूँ
अब क्या बचा है मुझमे
एक आस थी
तुम सब के बीच
एक बार फिर से जी लूंगा
लेकिन रहने दो
अपराधी हूँ तुम्हारा
अब मुझे किसी से कोई आस नहीं
कुछ नहीं कहना
अकेले ही सहना है
प्रिय ये तुमने ठीक ही किया
जो जीते जी सजा मुक़र्रर कर दी
दिल करता है मौत ही अ जाये
हो जाये सामना मेरा मौत से
देखो सामने से आ रही रेलगाड़ी
प्रिय विदा
अंतिम विदा
आआआअह्हह्हह्ह

1 Comments:

At October 18, 2015 at 8:01 AM , Anonymous Anonymous said...

:(

 

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