Thursday, December 12, 2013

क़लम हैरान हैं..


नन्हे एहसास जब छलकते हैं
नही रह जाता फिर कोई ज़ोर
अपने शब्दो पे..
कलम भी मूक हो जाती हैं...
थम जाती हैं उंगलिया..
उपजते हैं तब भाव के गहरे अल्फ़ाज़..

निकल पड़ती एक सरिता
मुझे, तुम्हे..सबको
अपने आप मे डुबोने के लिए..
पवित्र जलधारा फसा देती हैं हमे..
अपने गहरे भाव मे...
जहाँ से निकलना आसान नही होता..
क्यूँ ...
सच हैं ना..
बोलो...तुम क्या कहते हो????

1 Comments:

At December 12, 2013 at 4:56 AM , Anonymous Anonymous said...

nice....sahi kaha

 

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