Friday, June 24, 2011

अंतहीन बुढ़ापा


रिश्ते कैसे होते है.??
मानो तो अपने
नही तो पराए होते है..
एक छोटी सी चिड़िया को भी 
प्यार से दाना खिलाते ही 
वो झट अपनी बन जाती है..
एक नन्ही गिलहरी 
कब मूँगफली
मुह मे रख 
आँखो से थॅंक यू  
कह जाती है..
कितना प्यारा सा 
अनबोला रिश्ता होता है..
बिना स्वार्थ के
कैसा मासूम सा 
चेहरा दिखता है..
ये थे अनकहे रिश्ते..


अब कहे हुए रिश्तो की ओर
चलते है..
उन्हे जीवन मे अपना 
सब कुछ देते है..
फिर भी अंततः 
खाली  हाथ मलते  है..
बेटा विधवा माँ से 
काम ना चलने का 
बहाना करके
सब लूट ले जाता है..
बेटी आती है 
मज़बूरी बताती  है 
और सहानुभूति  के साथ साथ
बचा खुचा माल भी 
ले जाती है..
बच जाता है  
अंतहीन बुढ़ापा..
जिसकी कोई सुध नही लेता है..
सेवा करना तो दूर 
एक फोन कॉल भी 
भारी पड़ता है..
तब काम आते है 
चंद पुराने दोस्त..
कुछ अच्छे सच्चे पड़ोसी..
जो बेचारी विधवा माँ का 
छोटा मोटा काम
कर दिया करते है..
और बदले मे ले जाते है.  
सारी आशिशे.
दोस्त बेचारी विधवा माँ को 
रोने नही देते है..
स्वार्थ का साज़ 
बजाने नही देते है..
वो जीवन की सच्चाइयाँ 
छिपाते है..
बस साथ निभाते है..
उन्हे   आगे ले जाते है..

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